Saturday 17 November 2012

रोज़गार---दुनियादारी का यूं ही चलता रहेगा (१७.११.२०१२)


रोज़गार---दुनियादारी का यूं ही चलता रहेगा
(१७.११.२०१२)
प्रिय संजीव,
    पिछले,करीब दो माह से,मेरी लेखनी व मेरे विचारों के मध्य तारतम्य कुछ बिखर सा रहा है.
    हर रोज कोशिश करती हूं,कोरे कागज़ों को राइटिंग पैड पर सेट करती हूं, जो कलम(पैन) करीने से रखे होते थे,उन्हे अब खोजना पडता है.दो तीन पेनों में से एक भी पैन—शब्दों को मेरे अंतर्मन से---अपनी स्याही में डुबो नहीं पा रहा है.
   अक्सर ही---बहुत-बहुत गहरे में चले जाने को मन करता है---अक्सर आभास सा होता है---गहरे में बहुत कुछ दबा सा पडा है---पथरा गया है—ऊपर टनों गर्द बिछ गई है---शांत होने की कोशिश करती हूं---आंखें मूंदे घंटों लेटी रहती हूं---अंतर्मन की अथाह गहराइयों में उतरने की कोशिश करती हूं---एक बैचेनी है,उस दबे हुए को बाहर लाने की----परंतु नीचे उतरते-उतरते----विचारों की रस्सी कहीं टूट जाती है और आधे-अधूरे-अंधकार में, मन पुनः छटपटाने लगता है.
    एक आशा के साथ सोती हूं कि,गहरी नींद में ही कोई एक सपना ही राह दिखा दे---गहरे अंधेरे में टिमटिमाती मोमबत्ती की तरह,मुझे उस मणि तक पहुंचा दे जिसके लिये अंतर्मन स्फुटित होने को व्याकुल है.
    संजीव, मुझे लगता है---कि,एक-ना-एक दिन,वह जो दबा सा है---वह बाहर अवश्य आएगा----मेरे विचार और लेखनी में पुनः तारतम्य अवश्य जुडेगा---बस कुछ और ज्वार-भाटे और सही---और एक दिन महासागर की सतह---शांत हो जायेगी,शरदपूर्णिमा की स्निग्ध चांदनी में,बुद्ध के मौन की तरह---जो गहराई में चला गया है, चांदी सी रेत पर,हीरे की कनी सा बिछ जायेगा.
आज,१७.११.१२—टी.वी चेनलों पर तीन खबरें छाई रहीं---
कोई नई बात नहीं—यह तो सिलसिला-ए-खबर है,’हर दिन’ नाम होता किसी ’एक’ के नाम—--
    पहली खबर,आगरा जनपद के एक गांव जो बिचपुरी के पास है वहां के उदय सिंह नामक एक सैनिक,काश्मीर में मिलिटेम्ट से मुकाबला करते हुए शहीद हो गये.
    आज स्थानीय टी.वी. चैनल पर उनकी अंत्येष्टि का समाचार विस्तार से प्रसारित हो रहा था.
    शहीद की मौत—उसके घर वालों के सीनों को ही चौडा नही करती वरन आस-पास का क्षेत्र भी गौरान्वित महसूस करता है.
     पिता नम आंखो से बेटे की मौत पर गर्व महसूस कर रहे थे,भाइयों की आंखो में भी गौ्रव झिलमिला रहा था.पत्नि  की आंखो में आंसुओं के साथ-साथ, सब कुछ खो जाने का अहसास भी जरूर होगा---परंतु गौरव की गाथाओं में,उसके अहसासों को रोज रीता किया जाएगा.
    ८-१० वर्ष की बेटी के बचपन की एक याद ताउम्र उसके साथ जियेगी—कि,पापा मुझे बहुत प्यार करते थे.बहुत-बहुत देर बाद वह किताबों में पढेगी—शहीदों की मौत क्या होती है---शहीद किसे कहते हैं---शायद अपने बच्चों को कभी बताएगी----शहीदों की मौत पर हर वर्ष लगेगें मेले.
   छः माह का अबोध बेटा---हर रोज जवानी की ओर---भारी-भारी बूटों की लय-ताल के तले---कदम बढायेगा---कि,एक दिन उसे भी अपने पिता की तरह शहीद होना है---चार अफ़सरी कांधो पर,वह भी लाया जाएगा अपने गांव तलक---२१ बंदूकों की सलामी की गूंज में---धुंआ बन कहीं चला जाएगा---नम आंखो में अधूरा सपना सा बन---अपनों के सीनों को गौरान्वित कर---
   उसके गांव की सीमा के पार------”रोज़गार’ दुनियादारी का यूं ही चलता रहेगा.कुछ मौत कितनी बेमानी हो जाती हैं---केवल एक दिन ,कुछ घंटों का वज़ूद है उनका----वही जाम,होर्न का वही शोर,वही स्केन्डल,वही स्कैम,वही धूल वही गढ्ढों से पटी सडकें,वही रोज-रोटी की जुगाड----वही त्यौहारों की खाना-पूर्ती,वही बेवजह का शोर----लगता है कहीं कुए में बैठे हैं---और अपनी ही आवाज की गूंज कानों को बहरा कर रही है.
पुनःश्चय: कृपया मेरे ब्लोग पर कुछ देर बने रहिये----




2 comments:

  1. मन के भावों को ऐसे ही बहने दीजिये..

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  2. 'सुखिया सब संसार है खाये अरु सोवे,
    दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै।।
    - ऊपर से आपने कलम पकड़ ली है!

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